हम बच्चों से उनका बचपन क्यों छीन रहे हैं? फिल्म व टीवी संस्कृति हमारे बच्चों को समय से पहले ही वयस्क बना रही है। आए दिन चैनलों पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों में बच्चों से हास्य के नाम पर फूहड़ बातें सुनने को मिलती हैं। आठ-नौ साल का बच्चा माता-पिता के संबंधों पर व्यंग्य प्रस्तुत करता है और पेरेंट्स दर्शक दीर्घा में बैठकर प्रसन्न होते रहते हैं। क्या वह बच्चा इन सब बातों को समझता है? यहीं नहीं, डांस कार्यक्रमों में भी बच्चे अश्लील पोशाकें पहनकर अश्लील डांस करते हैं और जज से लेकर दर्शक तक उनकी तारीफ करते हैं। माना, बच्चों में प्रतिभा है, पर उसका इस तरह से उपयोग समझ नहीं आता। क्या यह सब कुछ सही हो रहा है मेरी राय से तो इसका बच्चों पर बहुत बुरा असर पड़ रहा है।
अभी कुछ दिन पहले ही एक चैनल पर किसी कार्यक्रम में अपना टैलेंट दिखाने के लिए आठ साल की बच्ची फिल्मी आइटम डांसरों जैसा डांस कर रही थी। एक सात साल का बच्चा तांत्रिक द्वारा किए जाने वाले वीभत्स कृत्यों को अपने डांस द्वारा दर्शा रहा था। मुझे तसल्ली हुई कि इस कार्यक्रम के जजों ने अपनी जिम्मेदारी को अच्छे से निभाया और बच्चों की प्रतिभा को बिना नकारे हुए, उनके द्वारा किए जाने वाले अश्लील व वीभत्स कृत्यों के लिए उनके माता-पिता को उनकी जिम्मेदारी का अहसास करवाया।
मुझे तो उन पेरेंट्स पर दया आई, जो थोड़ी-सी प्रसिद्धि पाने के लिए अपने अबोध बच्चों से कुछ भी करवाने के लिए तैयार थे। आज बच्चों पर वैसे भी पढ़ाई और प्रतियोगिता का इतना प्रेशर है कि उनकी कुंठाओं की झलकियां बोर्ड रिजल्ट्स आते ही आत्महत्या की खबरों के रूप में अखबार में पढऩे को मिल जाती हं। बच्चों के बचपन को अपनी आकांक्षाओं के बोझ तले दबाने से बेहतर है कि उन्हें उनका बचपन अभिभावक पूरी स्वतंत्रता से जीने दें।
2 टिप्पणियां:
हाय पैसा, हाय पैसा, हाय पैसा… जो न करवाये कम है…
सहमत हूं आपसे !!
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