गुरुवार, 29 जनवरी 2009
बोझ नहीं होते मां-बाप
हमारे पड़ोस में शांति ताई रहती थी। उसके तीन बेटे हैं। मुझे अच्छी तरह याद है। तब मैं बहुत छोटा था। लेकिन छोटी-मोटी बातें समझ लेता था। ताई मजदूरी करती, लेकिन तीनों बेटों को पढ़ा-लिखा कर बड़ा आदमी बनाने की इच्छा थी उसकी। ताई ने अपने एक बेटे की मेडिकल की पढ़ाई के लिए तो अपनी कुछ जमीन तक बेच डाली। हालांकि बेटा डॉक्टर बन गया। शहर में पढऩे गया। बाद में वहीं का होकर रहा गया। किसी शहरी लड़की से ही विवाह रचा लिया और ताई को बिसराकर बेफिक्र शहरी हो गया। दूसरा बेटा मास्टर बन गया और पास ही के एक कस्बे में पत्नी के साथ रहने लगा। गांव में आता-जाता था लेकिन उसे भी ताई की कोई परवाह नहीं। तीसरा बेटा गांव में ही रहता और खेती करता था। शायद ताई के पास तीसरे बेटे को पढ़ाने के लिए पैसा नहीं रहा।
विवाह से पहले वह ताई की खूब सेवा करता था, लेकिन पत्नी के आते वो भी ताई के प्रति लापरवाह हो गया। यहां तक कि पूरी जमीन की बुवाई भी खुद ही करता है। ताई के लिए कुछ नहीं छोड़ा। गांव वाले कहते कि, 'भाई अपनी मां को दो रोटी नहीं खिला सकता ? ’ उसका जवाब होता, 'रोटी देने के लिए मैं ही हूं। बड़े भाइयों के पास क्यों नहीं चली जाती। ’ कहने को तीन बेटे हैं ताई के लेकिन अभी भी वह बेचारी ही है। पेट भरने के लिए फिर से मजदूरी करती है। एक छोटे से गांव का यह कटु सत्य शहरों में तो एक बड़ी समस्या बन गया है। शहरों में भी शादी होते ही अधिकांश युवा अपने माता-पिता को बोझ समझकर वृद्धाश्रम में छोड़ आते है या फिर उन्हें अपने ही घर में अपने बेटे-बहू के रहमो-करम पर दिन काटने पड़ते हैं। न तो यह परिवर्तन है और नहीं कोई नई समाजिक व्यवस्था। 'बेटा मेरा नाम रोशन करेगा। मेरे बुढ़ापे की लाठी बनेगा। तीर्थ कराएगा। ’ ... और न जाने कितने अरमान अपने दिल में एक मां पालती है, अपनी कोख में पल रहे बेटे के साथ।
बाप बेटे की परवरिश करता है, कुछ ऐसी ही उम्मीदें लिए। लेकिन ये उम्मीदें एक ही झटके में टूट कर बिखर जाती है। बेटा बहू वाला हो जाता है और मां-बाप बेगाने। जरा सोचें, मां-बाप भी स्वार्थी हो गए होते। कोख में मां ने भी बेटे को बोझ समझ लिया होता। बाप एक मांस का पिंड समझ जैसे-तैसे बड़ा कर देता। लेकिन नहीं। आखिर वे मां-बाप हैं। खैर बेटा भी एक दिन बाप बनेगा और बहू मां। पीढ़ी दर पीढ़ी। लेकिन क्या ये 'परंपरा ’ भी पीढ़ी दर पीढ़ी चलेगी? यह कोई मुद्दा नहीं है। दिमाग से नहीं दिल से सोचने की जरूरत है। स्वर्ग तो कि सी ने नहीं देखा, लेकिन हमारे क र्म और संवेदनशून्यता हमारे जीवन को नरक जरूर बना देंगी। एक मां-बाप मिलकर अपनी कई संतानों को पाल सकते हैं, पर वो कई संतानें अपने मां-बाप को नहीं पाल सकते। यही है आज की हकीकत।
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4 टिप्पणियां:
विचारणीय लेख के लिए बधाई।
बात तो बहुत विचारणीय लिखी है आपने ....वैसे अगर सब समझ सके माँ बाप कि कीमत तो उन्हें परेशान क्यों होना पड़े
अनिल कान्त
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
क्या ये टूट रहे संयुक्त परिवारों का नतीजा है?
आपने अच्छा लिखा है
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